Hindi Quran | कुरान पढ़ो

77|1|साक्षी है वे (हवाएँ) जिनकी चोटी छोड़ दी जाती है
77|2|फिर ख़ूब तेज़ हो जाती है,
77|3|और (बादलों को) उठाकर फैलाती है,
77|4|फिर मामला करती है अलग-अलग,
77|5|फिर पेश करती है याददिहानी
77|6|इल्ज़ाम उतारने या चेतावनी देने के लिए,
77|7|निस्संदेह जिसका वादा तुमसे किया जा रहा है वह निश्चित ही घटित होकर रहेगा
77|8|अतः जब तारे विलुप्त (प्रकाशहीन) हो जाएँगे,
77|9|और जब आकाश फट जाएगा
77|10|और पहाड़ चूर्ण-विचूर्ण होकर बिखर जाएँगे;
77|11|और जब रसूलों का हाल यह होगा कि उन का समय नियत कर दिया गया होगा –
77|12|किस दिन के लिए वे टाले गए है?
77|13|फ़ैसले के दिन के लिए
77|14|और तुम्हें क्या मालूम कि वह फ़ैसले का दिन क्या है? –
77|15|तबाही है उस दिन झूठलाने-वालों की!
77|16|क्या ऐसा नहीं हुआ कि हमने पहलों को विनष्ट किया?
77|17|फिर उन्हीं के पीछे बादवालों को भी लगाते रहे?
77|18|अपराधियों के साथ हम ऐसा ही करते है
77|19|तबाही है उस दिन झुठलानेवालो की!
77|20|क्या ऐस नहीं है कि हमने तुम्हे तुच्छ जल से पैदा किया,
77|21|फिर हमने उसे एक सुरक्षित टिकने की जगह रखा,
77|22|एक ज्ञात और निश्चित अवधि तक?
77|23|फिर हमने अन्दाजा ठहराया, तो हम क्या ही अच्छा अन्दाज़ा ठहरानेवाले है
77|24|तबाही है उस दिन झूठलानेवालों की!
77|25|क्या ऐसा नहीं है कि हमने धरती को समेट रखनेवाली बनाया,
77|26|ज़िन्दों को भी और मुर्दों को भी,
77|27|और उसमें ऊँचे-ऊँचे पहाड़ जमाए और तुम्हें मीठा पानी पिलाया?
77|28|तबाही है उस दिन झुठलानेवालों की!
77|29|चलो उस चीज़ की ओर जिसे तुम झुठलाते रहे हो!
77|30|चलो तीन शाखाओंवाली छाया की ओर,
77|31|जिसमें न छाँव है और न वह अग्नि-ज्वाला से बचा सकती है
77|32|निस्संदेह वे (ज्वालाएँ) महल जैसी (ऊँची) चिंगारियाँ फेंकती है
77|33|मानो वे पीले ऊँट हैं!
77|34|तबाही है उस झुठलानेवालों की!
77|35|यह वह दिन है कि वे कुछ बोल नहीं रहे है,
77|36|तो कोई उज़ पेश करें, (बात यह है कि) उन्हें बोलने की अनुमति नहीं दी जा रही है
77|37|तबाही है उस दिन झुठलानेवालों की
77|38|”यह फ़ैसले का दिन है, हमने तुम्हें भी और पहलों को भी इकट्ठा कर दिया
77|39|”अब यदि तुम्हारे पास कोई चाल है तो मेरे विरुद्ध चलो।”
77|40|तबाही है उस दिन झुठलानेवालो की!
77|41|निस्संदेह डर रखनेवाले छाँवों और स्रोतों में है,
77|42|और उन फलों के बीच जो वे चाहे
77|43|”खाओ-पियो मज़े से, उस कर्मों के बदले में जो तुम करते रहे हो।”
77|44|निश्चय ही उत्तमकारों को हम ऐसा ही बदला देते है
77|45|तबाही है उस दिन झुठलानेवालों की!
77|46|”खा लो और मज़े कर लो थोड़ा-सा, वास्तव में तुम अपराधी हो!”
77|47|तबाही है उस दिन झुठलानेवालों की!
77|48|जब उनसे कहा जाता है कि “झुको! तो नहीं झुकते।”
77|49|तबाही है उस दिन झुठलानेवालों की!
77|50|अब आख़िर इसके पश्चात किस वाणी पर वे ईमान लाएँगे?

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